जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए गुरु बनाना आवश्यक

*जैन निर्यापक मुनि श्री वीरसागरजी महाराज

जालना: शिल्पकार द्वारा बनाई गई मूर्ती तब तक पूजी नहीं जाती जब तक गुरु उसमें सूरीमंत्र द्वारा संस्कार नही भर देते. ठीक उसी तरह मनुष्य को भी अपने जीवन को सफल बनाने के लिए उसे संस्कारित और व्यवस्थित करना जरूरी है. यह कार्य केवल गुरु ही कर सकते है. यह प्रतिपादन बुधवार को जैन निर्यापक मुनि श्री वीरसागरजी महाराज ने किया. 

जालना नगरी के श्रेयांसनाथ दिगंबर जैन मंदिर सदर बाजार में मानों त्यौहारों जैसा वातावरण निर्मित हुआ है. निर्यापक श्रमण परम पूज्य 108 श्री वीर सागर जी महाराज ससंघ मंदिर में श्रावक को धर्म लाभ दे रहे हैं जिसमें बडी संख्या में लोग पहुंच कर अपने जीवन को सफलता की ओर ले जाने का प्रण कर रहे है. 

प्रवचन में गुरुदेव ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में जीवन में गुरु बनाना कितना आवश्यक है इस बात पर अपने प्रवचन दिए. एक शिल्पकार मूर्ति बनाता है वह मूर्ति ठीक वैसी ही है, जैसे मंदिर में भगवान की मूर्ति है परंतु मंदिर की मूर्ति पूजी जाती है एवं शिल्पकार की मूर्ति शोकेस में स्टैचू के रूप में रखी जाती है वह मूर्ति पूजनीय तब बनती है जब गुरु उसमें सूरीमंत्र द्वारा संस्कार करते हैं.  अर्थात गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाव बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बनाए.  इन शब्दों के माध्यम से गुरुदेव ने गुरु की महिमा का बहुत सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया. 

पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है परन्तु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है. यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वर तुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखाएगा? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं.

जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है. गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है. क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन. उन्हीं की प्रेरणा से आत्मा चैतन्यमय बनती है. गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं. वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्न विनाशक होते हैं. उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है. उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है. अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके.

यदि गुरु शिष्य को जहर भी दे रहा है तो शिष्य ने उसे स्वीकार करते हुए समर्पण भाव से ग्रहण करना चाहिए क्योंकि निश्चित ही गुरु ने यह जाना है कि शिष्य की जो बीमारी है वह जहर से ही दूर हो सकती है. अत: जीवन में गुरु बना कर उनके प्रति संपूर्ण समर्पण ही हमारे जीवन की नैया को सही दिशा में मंजिल की ओर ले जाने का कार्य गुरु के माध्यम से होगा.

फोटो: मुनि श्री वीरसागरजी महाराज