
जब लोगों ने बाबा को शेर पर सवार होकर नदी के पार जाते हुए देखा ……..
अमन, भाईचारे व कौमी एकता का पैगाम देता है
बाबा शेर-सवार का उर्स
*दिखाई देता है हिन्दू-मुस्लिम एकता का नजारा
इमरान सिद्दीकी
दरगाह हजरत सैय्यद अहमद शेर-सवार अमन, भाईचारे व कौमी एकता का प्रतीक है. सभी वर्गों के लोग यहां पहुंच पूरी कायनात के लिए दुआ मांगते है.

इस दरगाह के बारे में बताया जाता हैं कि दरवेश की शक्ल का एक इंसान सैलानियों की तरह लगभग साढ़े सात सौ साल पहले बगदाद से चला था और अजमेर, दिल्ली, अहमदनगर, दौलताबाद, खुलताबाद, औरंगाबाद से होता हुआ जालना पहुंचा. सूरज से दमकते चेहरे वाला यह दरवेश जब जालना पहुंचा तो साथ कुछ और लोग भी थे. ये मुरीद उन्हें बाबा के नाम से संबोधित करते थे. इस बाबा ने शहर की तत्कालीन सीमाओं का जायजा लेने के बाद उसके पश्चिमी छोर से होकर बहने वाली नदी के निकट अपना डेरा डाला.
कहा जाता है कि उस दौर में इस नदी पर रात के वक्त एक शेर पानी पीने आया करता था. यही कारण था कि लोग इसे शेर वाली नदी के नाम से जानते थे. लोगों ने बाबा को अपनेतई समझाने की पुरजोर कोशिश की कि यह जगह सुरक्षित नहीं है, डेरा कहीं और डालो. किंतु बाबा ने इन सलाहों पर गौर नहीं किया. कहते हैं कि बाबा की जिद ने लोगों को खासा खिन्न भी कर दिया था.

पर, एक सुबह कुछ लोगों ने बाबा को शेर पर सवार होकर नदी के पार जाते हुए देखा. कुछ ही पलों में यह बात जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गई. लोगों ने जब बाबा के सामने शीश नवाया तो उनके खादिमों ने बाबा का नाम हजरत सैयद अहमद अल हसनी वल हुसैनी अलैह बताया. यह भी कि बाबा हुसैनी, हजरत मोहम्मद पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पुत्रियों की नस्ल में से है. मां इमाम हुसैन (रजि) और वालिद हसन(रजि) की नस्ल से. इसलिए आप को हसनी हुसैनी कहा जाता है.
जालना से होकर बहने वाली कुंडलिका (शेर वाली) नदी के किनारे स्थित शेर-सवार या राजा -बाघ सवार दरगाह के बारे में कई मान्यताएं आज भी चमत्कारिक कथाओं की शक्ल में कही सुनी जाती हैं. जालना के वाशिंदे बाबा को उनके कई करिश्मों की वजह से राजा बाघ सवार या शेर सवार कहते हैं.

माना जाता है कि बाबा शेर-सवार को जालना में स्थाई होने के बाद कुछ समय तक यहां के तत्कालीन राजा जालंधर का विरोध सहना पड़ा. मगर, राजा की यह खिलाफत कालांतर में बाबा में अद्भुत शक्तियों के कारण तिरोहित हो गई. राजा खुद भी बाबा का मुरीद हो गया. बाबा शेर-सवार का सालाना उर्स (वार्षिक मेला) छह रज्जब के दिन शुरू होता है. उर्स की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें मुस्लिमों की तरह ही हिंदू जनता भी पूरी शिद्दत और आस्था से शिरकत करती है. वस्तुत: इसे सिर्फ एक मजहबी जलसा कहने की बजाए हिंदू-मुस्लिम एकता का सामूहिक पर्व कहना ज्यादा मुनासिब होगा.
साल ६७५ हिजरी में जालना को अपने कदम-ए-पाक से मालामाल कर देने वाले हजरत सैयद अहमद शेर-सवार अलहसनी वल हुसैनी अलैह का इंतकाल छह रज्जब ६९९ हिजरी में हुआ.
