वीर शहीद बिरसा मुंडा 19 वीं सदी में हुए स्वतंत्रता संग्राम के वनवासी जननायक

*आधे दशक से भी अधिक समय तक अंग्रेजी राज को हिलाकर रख दिया
* भारत के वीरों को सलाम

१५ नवंबर जयंती विशेष

जालना: वीर शहीद बिरसा मुंडा 19 वीं सदी मे हुए स्वतंत्रता संग्राम के वनवासी जननायक थे. वनवासियों के जल, जंगल, जमीन और स्वत्व की रक्षा के लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया. स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणो का उत्सर्ग करने वाले बिरसा ने उलगुलान क्रांती का आव्हान किया था. जनजाती, संस्कृती, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिये बिरसा के संघर्ष ने आधे दशक से भी अधिक समय तक अंग्रेजी राज को हिलाकर रख दिया.

भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में बसी लगभग 300 जनजातियों के सपूतों की गौरव गाथा जब हम याद करते हैं तो एक स्वर्ण नाम उभरता है, बिरसा मुंडा जिन्हें अपनी जनजाति, बंधू प्यार और श्रद्धा के साथ बिरसा भगवान के रूप में नमन करते है.

जनजातीय समाज को नई दिशा देने वाले क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का जन्म राची के उलीहातू गाव में 15 नवंबर 1857 को हुआ था. पिता सुगना मुंडा और माता करमी अत्यंत निर्धन थे और दुसरे गाव जाकर मजदूरी का काम किया करते थे. उनके दो भाई एवं दो बहनें भी थी. बिरसा का बचपन एक सामान्य वनवासी बालक की तरह ही बीता. माता-पिता ने उन्हे पढने के लिए मामा के घर आयुबहातु भेज दिया. जहा बिरसा ने भेड-बकरीयां चराने के साथ-साथ शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारंभिक शिक्षा पाई.

बिरसा ने बुर्जु स्कूल में प्राथमिक शिक्षा हासिल कर आगे की पढाई के लिए चाईबासा के लूथरन मिशन स्कूल में दाखिला लिया. जहा बिरसा कि शिखा(चोटी) काटी गई जिससे उनके मन को बडा आघात पहुंचा. वहां उन्होंने अपने धर्म पर संकट महसूस किया करते हुए बिरसा ने ईसाइयों के षड्यंत्र को भाप लिया. इसके बिरसा धर्म रक्षा का संकल्प लेकर गांव लोटे.1891 में चाईबासा से लौटने के बाद बिरसा बंदगाव आए. यहां लोग उनके अनुयायी बनने लगे जिसके बाद एक जन आंदोलन खड़ा हो गया.

बिरसा मुंडा ने युवकों का एक संगठन बनाया जो सामाजिक सुधार के साथ-साथ राजनीतिक शोषण के विरुद्ध लोगों को जागृत करने का कार्य करने लगा. बिरसा ने आव्हान किया की अंग्रेज शासन और उसकी धार्मिक नीति इस देश को भ्रष्ट कर रही है. यह हमारे देश को गुलाम बनाना चाहते है.

बिरसा ने स्वतंत्रता के लिये नारा दिया !! अबुवा दिशोम, अबुवा राज !! यानीकी अपना देश, अपनी माटी. बिरसा के इस शंखनाद से जनजाति युवा जाग उठे तथा चलकद ग्राम एक आश्रम, एक आरोग्य निकेतन और एक क्रांति का गढ़ बना गया.

अंग्रेज सरकार ने हर संभव उपाय कर बिरसा की क्रांति को कुचलने का आदेश दिया. 25 अगस्त 1895 को छल-प्रपंच से पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया और हजारीबाग जेल में ले गए. 30 नवंबर 1897 को बिरसा रिहा हुए और 1899 में उनका आंदोलन एक बार फिर शुरू हुआ. 9 जनवरी 1900 के दिन बिरसा ने जोजोहातु के निकट डोम्बारी पहाड़ियों में एक सभा आयोजित की जिसमें हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हुए. कमिशन रस्टीफिल्ड को जब इसकी खबर मिली तो उसने पूरे पहाड़ को घेर लिया.

आंदोलनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गई. इधर बंदुक थी, उधर पत्थर और तीर धनुष. हजारों के खून से पहाडी रंग गई. अंतत: अंग्रेजो ने डोंबारी पर्वत पर कब्जा कर लिया लेकिन मुक्ति-नायक बिरसा उनके हाथ नहीं लगे.

इसी बीच दो गद्दार अंग्रेजों से जा मिले. 3 फरवरी को गुप्तचरों और भेदियों की मदद से बंदगाव में उन्हें पकड़ लिया गया. 9 जून 1900 के दिन स्वतंत्रता के इस महान नायक की रहस्यमय ढंग से रांची जेल में मृत्यु हो गई. कहा गया के उन्हे हैजा हो गया था, लेकिन लोगों की धारणा थी की उनको मारा गया है. स्वतंत्रता संग्राम के इस महानायक के शव को एक नाले के किनारे जला दिया गया.

आज भी लोग बिरसा मुंडा के स्वतंत्रता संग्राम को याद करते है जिसके कारण अंग्रेजों को कई बार मात खानी पड़ी थी.

एड बॉबी अग्रवाल